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Thursday, November 29, 2012

साहिब बैग वाला

साहिब बैग वाला वो बुडा जो गली २२ के टूटे से दुकान नम्बर २३ में बैठता है जो हर रोज लोहे की दांतों से बैग की चैन को जोड़ता कभी खींचता हर दिन उलझा रहता है ...आज मैं भी उसके दुकान में बैठा था कहीं बिखरे चमड़े कहीं लोहे की किलो के बीच मस्त सा कुछ बना रहा था ..हांथों में पट्टी बंधी थी सायद कोई ज़ख्म होगा .. कोई गम नहीं था उसे जिंदगी में आँखों में फैली उसकी सुकून मेरे आत्मा को खा रही थी कोई कैसे जी सकता है अन्याश हिन् मन पूछ बैठा बाबा कितने दिनों से आप ये कर रहे हो और वो हँसता चमड़े को देखता हुआ बोला बहूत दिन होगये ..बचपन से हिन् लोगो के अरमानो की गठरी सी रहा हूँ कुछ थोडा बहूत आजाता है जिससे जिंदगी चल रही है मैंने कहा आपके जूते तो फटे हैं ? नया क्यूँ नहीं लेते ..और वो कहा मरहम लगाने वाले हनथो के ज़ख्म कौन देखता है बाबूजी ... मैंने भी इन सरीर के निकले जख्मो को यूँ हिन् छोड़ देता हूँ किसी दिन तो मेरा अल्लाह उसपर मरहम लगाएगा और उसने अपने लोहे की दांतों से मेरे फटे थाले को सिलने लगा वो मरहम लगाता जा रहा था ज़ख्म बढ़ते जा रहे थे आज बहूत अरशों बाद मैंने सुकून देखा है इस दौड़ती जिंदगी में ... कभी मौका मिले तो आप भी जाना वहां वहां रब रहता है उस मरहम लगाने वाले की दुकान में पता तो याद हिन् होगा गली २२ के टूटे से दुकान नम्बर २३ में बैठता है..साहिब बैग वाला

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