sidhanth
Thursday, November 29, 2012
नंबर 473
नंबर 473
कुछ चीजे ऐसे हिन् होती हैं जो बहूत कुछ सिखा जाती हैं ..ऐसे हिन् कुछ हुआ आज मेरे साथ सुबह सुबह मैं बस स्टैंड चला गया सोचा आज सफ़र बस से कर लूँ ..तभी अचानक बिलकुल नयी चमकती हरी बस मानो लग रह था जैसे सरक पर नरम हरी गाश की सेज बिछी हुई हो ...जीवन का पर्तिबिम्ब सा लगा ..बाहर से हिन् अन्दर की भीर दिख रही थी मैं भी उसकी का हिस्सा हूँ तो फिर डरना क्या ..कूद पड़ा ..अनदर का परिवेश दिल को दहलाने वाला था जो मुझे नरम जीवन सा लग रह था वो रेगिस्तान सा प्रतीत हो रहा था ...और उस भिर्र में एक बूढी महिला जो हो सकत है उन ७० लोगो में किसी की माँ या किसी की दादी की उम्र की होगी ..पर वो भीर निरह चुप चाप जिसे मैं थोरी देर पहले जिवंत का उदहारण दे रहा था ठुट बने बैठे थे ....क्या जमाना आगया है ..सभी मृत से हो गए और जिन्दा इन्सान अपने लाशो की बोझ को धो रहा है ...सचमुच और सायद उस बूढी को भी यकीं था की कोई हटने वाला नहीं है वो चुप चाप कहरी रही एक कोने में दबी हुई ..सायद वो भी येही सोच रही होगी की उनके बचे कितने कमजोर हैं जो पानी माँ का भर नहीं झेल सकते ..येही सोचता हूँ मैं ..की क्या किताबों में लिखी बाते कल्पना है या सायद काश हम कभी उसे उतर पते..मुझे अलग न समझे मैं भी सायद कहीं न कहीं उसी मृत भीर का हिस्सा हूँ ..चुप हूँ सायद अपने अनत के इन्तेजार में काहिर मुझे अब उतरना है ..पर आज मैं वो सिख पाई जो सायद कभी मैं किसी की मदद केर सकूँ
वो गिरा ...और बिखर गया सायद बिखराव हिन् मुक्कदर था अब वहां नयी बोतल लगी हैं ...उस शराबी का दोष था या उसे बोतल की मुक़दर ..लेकिन वो टूट गया ...बह गया जो भी अन्दर था ....कांच में अपने आप को देखता हुआ सराबी बोला काश वो भी मुझे तोड़ जाता उस वक़्त तो ये जखम यूँ हिन् नहीं चुभता अन्दर हिन् अन्दर ...और वो चला गया
शर्दी से प्यार होगया है
कसम से कभी नहीं सोचा था प्यार होगा भी तो शर्दी से ..जी हाँ वही जो नाक गला सब जाम कर देती है .....तो फिर ये तकलीफ में प्यार कैसे ...तो भयिया फिर जो सेवा होती हो प्यार करवा देती है ...वो माँ का सुबह गरम पानी देना ...हर घंटे देखना की कहीं बुखार तो न होगया मेरे बच्चे को ...वो दूध को गरम कर के हल्दी देना ...ये नहीं खाओ वो नहीं खाओ ...तो प्यार तो होगा हिन् ऐसी बीमारी से
हम भगोरो की भी अजीब जिंदगी
कहाँ की माटी में खरे हुए और कब गुजर गये तन से पता हिन् न चला
बियावान हिन् घर हमारा
नदियाँ हिन् रास्ते
पुलिस की गोली मुकदर
सरकार देती है या तो इनाम सर पर या ???
सोचता खेती करूँगा ज़मीन पर सुना पानी हिन् नहीं आती
न ज़मीन से न आसमान से ...हमने बन्दुक उठा ली
दिल से नहीं पेट से
हम तो कामरेड हैं ..हसिया खेत में चली नहीं ..अब गर्दन पर हिन् चलते हैं
...मैंने कहा हक मानगो और उसने कहा तुझे मिला क्या ....और फिर हम खो गए भगोरो बन कर
संदूक ...
कल हिन् की बात थी घर में बैठा ..अपनी पुराणी संदूक को देख रहा था ...फिर मैंने उस यादों से भरे बक्से को खोल दिया ...न जाने मेरी माँ ने कैसे बचपन के बीते मेरे हर पल को उसमे समेट कर रखा था ...वो टूटी रेलगाड़ी ,,,वो बिना नाक का जोकर ..वो आँखों से रौशनी करने वाला भालू ...छोटे छोटे मेरे कपडे हर एक चीज ...फिर मैंने उस संदूक को बंद कर दिया ...और बचपन फिर खो गया उस एक ताले को लगते हिन्
तन्हाई में पढो ग़जल कभी किसी सायर का ..तुम्हे पता चलेगा की वो भी अकेले हिन् था जब उसने ये नज़्म लिखा होगा
माचिस की तिल्ली भी बड़ी अजीब होती है ...बिलकुल हमारी खुशियों की तरह ..जला प्रकाश फैला ..मुस्कान बिखरे ..और फिर बुझ गयी वो तिल्ली की कभी जली हिन् नहीं थी वैसे हिन् गम के काले चादर को ओढ़ कर ..और एक हल्का धुआं ..जो ये बताता रहा की वो आग अभी जिविती है !
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बीडी भी बड़ी अलग चीज होती है , सूखे पत्ते जैसे हमारे और आपके अरमान , जिसपर गुजरता समय आग की तरह धोक्ता है ..और लहक जाती है जीवन (बीडी) और फूँक से निकल जाता है धुआं (आत्मा )...और सुलग टी रह जाती है वो २५पैसे की बीडी
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रक्त से नहाउठती है वसुधरा जब किसान अपने हक के लिए लड़ता मौत उसका वजूद नहीं विधाता की दें है युद्ध तो बस एक विकल्प है हक का और वो निरंतर चलता रहा है और रहेगा जब तक राजनीती के गद्दी पर बैठा दलाल सौदा करता रहेगा किसान तब तक अपने लहू से इस धरा पर "लाल सलाम लिखता रहेगा "
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मैं तुम्हे चाहता पर तुम जान जाती काश उस प्यार को जो सिमट कर रह गया इन बाहों में जो सायद तेरा था , पर तुम जान जाती काश उस प्यार को जो इन आँखों से बह गया अंशु बन तेरी याद में काश तुम उस नमी को महसूस कर पाती तो जान जाती उस रात भी मैं आया था तेरे घर पर पर काश तुम जान जाती ..वो आखरी रात थी ..काश तुम जान जाती की उस प्यार का मोल लगा था उस रात के बाज़ार में काश तुम जान जाती उस प्यार को जो बस अब सिमट कर रह गया है
मेरे इन दो बाहों में ..काश तुम जान जाती
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दर्द एक पत्थर की तरह जिसे तुम जब एक स्थिर तालाब में फेंकते हो तो वो तरंग की तरह फैलता है और जब तक तुम संभलो वो दर्द का तरंग जीवन में ज़हर की तरह घुलता जाता है जब तक वो किनारे से न मिले ..मैंने तो तो ये पत्थर सागर में फेंका है देखूं कब ये किनारे से मिले
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स्वर्ग में बैठ युधिस्ठिर तुम भी देख लो आज अब एक तुम हिन् नहीं जो देश को चौसर पर दाव रख सकते थे ..आज सम्पूर्ण आर्यवर्त हर दिन देश को दाव पर रख यहाँ चौसर खेलता है
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बुराइ पर अच्छाइ की जीत हो सो इलिए मैंने आज सारा न्यूज़ चैनल हिन् डिलीट कर दिया
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साहिब बैग वाला
साहिब बैग वाला
वो बुडा जो गली २२ के टूटे से दुकान नम्बर २३ में बैठता है
जो हर रोज लोहे की दांतों से बैग की चैन को जोड़ता
कभी खींचता हर दिन उलझा रहता है
...आज मैं भी उसके दुकान में बैठा था
कहीं बिखरे चमड़े कहीं लोहे की किलो के बीच
मस्त सा कुछ बना रहा था ..हांथों में पट्टी बंधी थी
सायद कोई ज़ख्म होगा ..
कोई गम नहीं था उसे जिंदगी में आँखों में फैली उसकी सुकून
मेरे आत्मा को खा रही थी कोई कैसे जी सकता है
अन्याश हिन् मन पूछ बैठा बाबा कितने दिनों से आप ये कर रहे हो
और वो हँसता चमड़े को देखता हुआ बोला
बहूत दिन होगये ..बचपन से हिन् लोगो के
अरमानो की गठरी सी रहा हूँ
कुछ थोडा बहूत आजाता है जिससे जिंदगी चल रही है
मैंने कहा आपके जूते तो फटे हैं ?
नया क्यूँ नहीं लेते ..और वो कहा
मरहम लगाने वाले हनथो के ज़ख्म कौन देखता है बाबूजी ...
मैंने भी इन सरीर के निकले जख्मो को यूँ हिन् छोड़ देता हूँ
किसी दिन तो मेरा अल्लाह उसपर मरहम लगाएगा
और उसने अपने लोहे की दांतों से मेरे फटे थाले को सिलने लगा
वो मरहम लगाता जा रहा था
ज़ख्म बढ़ते जा रहे थे
आज बहूत अरशों बाद मैंने सुकून देखा है
इस दौड़ती जिंदगी में ...
कभी मौका मिले तो आप भी जाना वहां
वहां रब रहता है उस मरहम लगाने वाले की दुकान में
पता तो याद हिन् होगा गली २२ के टूटे से दुकान नम्बर २३ में बैठता है..साहिब बैग वाला
Wednesday, November 28, 2012
इन्तेजार है उस का कब से
न जाने कब से
सायद जब मैंने ऑंखें खोली थी तब से
सायद मैंने जब सोचना सुरु किया था
सायद वो स्कूल का पहला दिन था तब से
सायद उसका बात्तों हिन् बात्तों में लटों को कान के पीछे करना तब से
पता नहीं कब से दिल में छुपा कर बैठा हूँ तस्वीर उसकी कब से
कब से याद नहीं कब से जी रहा हूँ उसके लिए कब से पता नहीं
गुजर गए कितने साल मिला नहीं हूँ जब से बिछड़ा हूँ उससे
अब कहाँ है पता नहीं
पर अब भी वो मेरे दिल में है पता नहीं कब से
मेरे बिखरने से पहले हिन् उसने मुझे थाम लिया ..
क्या कहूं ए खुदा तूने सिर्फ तूने हिन् मेरा साथ दिया
पर अब मुझे बिखरना है
थोडा टूटना है
जानता हूँ तू भी बिखरेगा मेरे साथ
पर मेरे गम मैं तुझे रुसवा न करूँगा ...अलविदा
काश मेरी आँखों को वो समझ जाते हमने तो अब जिंदगी हिन् लुटा दी लफ्जो के सामने
मैं हर रात येही सोच कर सोता हूँ की ये रात आखरी और लम्बी होगी पर पता नहीं ऊपर वाले को क्या काम है जो हर सुबह उठा देता है मुझे ..ओये कल मत उठाना
अभी अभी रस्ते में एक वार्तालाप सुना ...लार्की बोली की यार ६०% छुट है २ जीन्स ले लूँ लड़के ने बोला लो ...और धीरे से बोला घर तो हम मजदूरों को हिन् चलाना है ...वाह
गरीबों के रक्त से पिपासित आत्मा आज जिंदगी की बात क्यूँ कर रही है तुम भी अपना कम करते रहते जैसे वो मंदिर में मौन बैठा है ...लो ये रक्त लो ..और लो लाल कर दो इस धरती को की कोई ये न कहने वाला हो की भगवान् का कोई अस्तित्व था
अए दिल जरा फकीरों की बस्ती की और चल जरा मैं भी देखूं फकीरों को चुराने वाला खुदा कैसा दीखता है
CP ki RAT
आज मैं एक बूढ़े से मिला चुप चाप अँधेरे में भी उसकी झुरियां चमक रही थी ..खुले आसमां के निचे बिलकुल उस बूढ़े बरगद के पेड की तरह जहाँ कभी जीवन था ..आज नहीं है ..उसके बेटे ने उसे घर से निकाल दिया है ..क्या आज हम इतने बड़े होगये हैं की माँ बाप के जीवन का भी फैसला करने वाले बन बैठे है ..मुझे दुःख था ..पर पता नहीं रो नहीं पाया ..उसके दुःख को देख कर या सायद मैं नपुंशक बन बैठा हूँ इस समाज में जहाँ नाचना तो हमारी मुकदर है पर न जाने फैसले कब लेना सीखेंगे ..दुनियां में गम बहूत जाएदा है कुशियाँ थोड़ी सी हैं ..उन्हें माँ बाप के साथ बाटों ..बरगद को काटो नहीं सींचो
भगवन की तस्वीर की पूजा रोज करते हैं
बड़ी अजीब लगता है मुझे लोग घरो में पड़े भगवन की तस्वीर की पूजा रोज करते हैं ...पर कभी किसी ने ये नहीं देखा की उस भगवान के तन पे कोई वस्त्र नहीं है ..और वही भगवान जब बच्चे के रूप में सड़क पर मिलते हैं ...तो हम उन्हें दुत्कार देते हैं ...पर उस भगवान की भी अजीब जिद है वो हर गुजरते राही से कुछ मांगता है ...और हम बढ़ते हिन् जाते हैं ...सोचो जरा
दिवाली
लहक गयी चावल जल गयी कढाई ...तबे ने भी मुह बिचकाई
छोलनी का भी मुह होगया है काला
और कल्चल ने उसका खूब मजाक है उड़ाया
चाकू साला नीठ्ला सुबह से सो रहा है
और चूल्हा आहे ले रहा है
सोच रहा हूँ क्या बनायु ...फीर याद
आया और मैंने इस दिवाली भी सोकर हिन् काम चलाया
समसान
आजकल हमारा अक्स हिन् हमसे खफा रहने लगा है
कल रात उसने आईने के सामने ये बात कही हमसे
हमने कफा की वजह पूछी तो उसने आईने से हमारा वजूद हिन् मिटा डाला
कभी सोचता हूँ समसान में
कुछ पल गुजारूं उन बेजुबानो के साथ
कितना सुकून होगा उन्हें धरती से लिपट कर
रहने में यहाँ तो फलों के बीज भी दो पल टिकते हैं
कैसे वो सुकून से रहता होगा
अन्दर बिना खुले हवे के
न बारिश की बूंद ..न चमकती धुप की रौशनी
न अपनों का साथ बस एक खमोशी
कभी कभी कोई आजाता होगा आसपास कुदाल चलाने
और दे जाता होगा एक दोस्त उन्हें ...
कैसे वो बात करते होंगे उन पत्थरो से
..क्या कोई आवाज जाती होगी वहां
कैसा खामोश बस्ती बना रखा है उन्होंने
और हम यहाँ ऊपर जिंदे होकर भी ख़ामोशी के साथ जी रहे हैं
सोचता हूँ कुछ पल गुजारूं उन बेजुबानो के साथ
बिना खुले हवे के बिना रौशनी के ..बिना तुम्हारे जो सायद यहीं कहीं दफ़न हो
मेरे यादों के साथ ...काश कोई इन पत्थरों को हटा ता तो मैं भी जान पाता
कितना कुछ दबा हैं सायद जो काश कभी मेरा होपाता अब नहीं ...
काश ....उन दो सब्दों के बिना जीवन आज भी अधूरी है कल भी
बिन तेरे
चिट्टी
काश हम भी उन्हें चिट्टी लिखते
काश हम भी कभी उन्हें वो कह्पाते
जो कई बार आँखों ने तो बोला
पर जुब़ा गिरफतार होगई थी उनके नजरो की
कई बार ..कई बार हमने लिखा भी वो
जो सायद बोल नहीं पाता
पर कलम खामोश हिन् रही और दिल पे मन की जुबा से लिखते रहे हम
कई बार सोचा की तुम्हे बोलूं की खुले बाल में अछि लगती हो
पर हर बार मैं उन लटों की उलझन में हिन् उलझा रहा
कई बार दोस्तों ने कहा की बोल दो उसे और मैंने हर बार येही बोला
किस्मत में लिखी होगी तो मिलेगी नहीं तो हमने कईयों
की डोली उठाई है अपने हांथो से
संस्कृति
हमारी संस्कृति और घोटाले में चोली दामन का बहूत पुराना हमारी संस्कृति और घोटाले में चोली दामन का बहूत पुराना इतिआश है ..जरा ध्यान दे ..कई मुल्को ने और कई देशो ने हमपे हमला किया पर कोई हमारी संस्कृति बदल पाई नहीं ..हम आज भी वही हैं जो आने वाले कई वर्षो तक ऐसे हिन् रहेंगे वही मंदिर में जाना वही प्राथना होगी ..वही कुरान होगा वही गीता के श्लोक होंगे और वही नेता भी होंगे ..जो देश को पिछले ६० वर्षों से लुट रहे हैं ...पर मुझे दुःख इस बात का नहीं की घोटाले हो रहे हैं और क्या प्रमाण की आने वाली सरकार ऐसा नहीं करेंगी ..इंसान वर्षों से लुट कर खा रहा है और वो खायेगा हिन् ...सो ये सोचना की वो सही और गलत है ये चीजे अब कल्पना से परेन और किताबों में हिन् मिलेंगे एक आदर्श आदमी के उधारण...लोग कहते हैं की सरकार ने 2G में पैसा खाया है पर आप हिन् सोचिये क्या सरकार ने वर्षों से चली आ रही कुछ कम्पैनियन का समराज्य तोडा है जिससे हम आज कम पैसों में बात कर पाते हैं ...ऐसे बहूत से मुद्दे हैं जिसपर सोचने का वक़्त है न की सरकार को मुजरिम कहना ....(ये मेरा निजी विचार है ..अगर किसी की भावना को चोट पौन्चती है तो मैं माफ़ी मांगता हूँ ) ...वक़्त आरोप का नहीं वक़्त है बदलने का ....भारत भाग्यविधाता है और रहेगा ...आप इस कथन को जैसे ले ..पर मैं देश की म्हणता में हिन् लेता हूँ इसे
नफरत
नफरत बड़ी काम की होती है अगर हो जाये तो आदमी भगवन से भी लड़ बैठता है और प्यार हो तो उस रब के आगे भी घुटने टेक देता है ...मुझे तेरी नफरत हिन् पसंद है जो न तुझे जीने देगी और मैं तो कब से इस तेरे नफरत पे मर मिटा हूँ ....बस राह खोज रहा हूँ ...आज तेरे सेहर से भी नफरत होगई है मुझे और सुना है की ...पूरा सहर नफरत की दीवानगी में जल रहा है
मेघा
यूँ छाई है मेघा आसमान में हमारे अरमानो की बारिश हो रही है
२ बूंद गिरी टूट कर वो आसमान से हमारे हंथेलियों पर
बिखर गयी जैसे कुछ सिमटा हिन् न हो
भींग रही है वसुधरा ने कहा हमसे न पकड़ो इसे बह जाने दो टूट कर इसे
मन
ये मन बड़ा विद्रोही है ...कई बार हमने इसके विद्रोह को रोकने की कोशिश की पर ये विद्रोह हर दिन बढ़ता जा रहा है ...
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