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sidhanth
 
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Monday, March 25, 2013
फुलवा नहीं रही ..
फुलवा नहीं रही ..
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वो हर रोज आता 
कभी सड़क पर मेरे आँचल को खींचता 
कभी सरेआम दुपट्टे को ले भागता 
मैं रहती डरी सहमी 
अपने आप में घुट्टी 
सोचती क्या बोलूं 
किस्से बोलूं 
कोन सुने ये हाल मेरा 
चुप रही आगे बढती रही 
मानो जीवन एक चोराहे पर आ बट गयी हो 
पर जब देखती माँ बाबु को सोचती कुछ बनू 
इनके सपने का नूर 
बन चमकू 
वो गर्मी की दुपहरीया थी
कंधे पर स्कूल का बस्ता 
हांथो पे कच्छी इमली थी 
.....
फीर वो दिखा 
मैं सहम गयी 
और अचानक 
मैं काँप गयी 
धरती पर मैं गिरी 
फीर कभी न उठी 
आँखों में कई सपने 
कभी बेटी 
कहीं बहन 
किसी की  पत्नी 
पर कुछ नहीं हो पाया 
हैं वो दुपट्टा पड़ा है ..
बन घुन्घुट  समाज 
के हैवानियत  को ढके 
...
मुझ पर तेज़ाब डाला गया 
क्या  भूल थी मेरी 
बस एक लड़की होना ? 
मात्र या ...ऑंखें भर आयी और उसके  आँखों 
से गिरते वो तेजाब मुझे जला गयी ..
फुलवा बन सकती थी बेटी 
पर आज अर्थी पर सज जा रही है 
नहीं रही फुलवा ..जला दिया तुमने उसकी यादों को ...क्या बोलूं .. 25/3/2013 
.. (ये कोई कविता नहीं है बस दर्द है किसी और का मैं शब्दों में उसे बांध नहीं पाया मैं नहीं कर सकता ..किसी की पीड़ा को नहीं बांध सकता )
Monday, December 3, 2012
अभी लंगड़े की दौड़ बाकि है
अभी लंगड़े की दौड़ बाकि है ...
अभी रेस ख़तम नहीं हुई है ..
अभी बिगुल नहीं बजा है ...
अभी गिरकर फीर उठाना बाकि है ...
अभी लंगड़े की दौड़ बाकि है ..
अभी ज़ख्मो से बहते रक्त ने भूमि को रंग नहीं है ...
अभी जीत की सफ़ेद पट्टी टंगी है ..
अभी सूरज ढला नहीं है ..
अभी तालीयों का शोर रुका नहीं है ...
अभी लंगड़े की दौड़ बाकि है 
कल से लंगड़ा फीर दौड़ेगा 
जीत के लिए 
अपने अरमानो के लिए 
अपने सपनो के लिए
और तालियाँ बज रही हैं ....दौड़ जारी है ..
Sunday, December 2, 2012
तेरा ये भाई तेरे लिए
क्या कहूं कितने अरमान दिलो में दबा रखा है तेरा ये भाई तेरे लिए 
तुझे सायद पता नहीं है जब तू छोटी से थी मेरे नन्हे हनथो को पकड़ चलना सीखी 
वो मेरे हर बात में तेरा नुक्स खोजना 
मुझे आज भी याद है 
मुझे याद है बचपन के वो दिन तेरे जब मैं तुझे साइकिल पर बैठा स्कूल ले जाता था 
और तेरा कहना भाई तेज चला 
हर गह्दी से मैंने रचे लगाया 
की तुझे ऐसा न लगे की तेरा भाई 
कभी हारा हो ....
वो तेरी दो चोटियों को पकड़ खेलना 
वो मेरी एक रूपये का चाहत 
और वो तेरा हर घडी रूठना 
कभी गुब्बारे के लिए तो कभी गुड्डियों के लिए 
तुझे याद है जब बिना हवे की साइकिल पर भी तेरे को बैठा घुमाना 
मुझे याद हर वो कुछ जो पल गुजरे 
तुझे सायद याद नहीं की कितनी बार मैं गिरा हूँ 
तुझे रास्ते के ठोकर से बचाने को 
मैंने जिंदगी में कुछ पाया नहीं पर 
मैं तुझे जीतते देखना चाहता हूँ 
तू आज भी मेरे लिए मेरी बहन से जाएदा मेरी बेटी की तरह है 
तेरा भाई 
......
Thursday, November 29, 2012
नंबर 473
नंबर 473 
कुछ चीजे ऐसे हिन् होती हैं जो बहूत कुछ सिखा जाती हैं ..ऐसे हिन् कुछ हुआ आज मेरे साथ सुबह सुबह मैं बस स्टैंड चला गया सोचा आज सफ़र बस से कर लूँ ..तभी अचानक बिलकुल नयी चमकती हरी बस मानो लग रह था जैसे सरक पर नरम हरी गाश की सेज बिछी हुई हो ...जीवन का पर्तिबिम्ब सा लगा ..बाहर से हिन् अन्दर की भीर दिख रही थी मैं भी उसकी का हिस्सा हूँ तो फिर डरना क्या ..कूद पड़ा ..अनदर का परिवेश दिल को दहलाने वाला था जो मुझे नरम जीवन सा लग रह था वो रेगिस्तान सा प्रतीत हो रहा था ...और उस भिर्र में एक बूढी महिला जो हो सकत है उन ७० लोगो में किसी की माँ या किसी की दादी की उम्र की होगी ..पर वो भीर निरह चुप चाप जिसे मैं थोरी देर पहले जिवंत का उदहारण दे रहा था ठुट बने बैठे थे ....क्या जमाना आगया है ..सभी मृत से हो गए और जिन्दा इन्सान अपने लाशो की बोझ को धो रहा है ...सचमुच और सायद उस बूढी को भी यकीं था की कोई हटने वाला नहीं है वो चुप चाप कहरी रही एक कोने में दबी हुई ..सायद वो भी येही सोच रही होगी की उनके बचे कितने कमजोर हैं जो पानी माँ का भर नहीं झेल सकते ..येही सोचता हूँ मैं ..की क्या किताबों में लिखी बाते कल्पना है या सायद काश हम कभी उसे उतर पते..मुझे अलग न समझे मैं भी सायद कहीं न कहीं उसी मृत भीर का हिस्सा हूँ ..चुप हूँ सायद अपने अनत के इन्तेजार में काहिर मुझे अब उतरना है ..पर आज मैं वो सिख पाई जो सायद कभी मैं किसी की मदद केर सकूँ 
वो गिरा ...और बिखर गया सायद बिखराव हिन् मुक्कदर था अब वहां नयी बोतल लगी हैं ...उस शराबी का दोष था या उसे बोतल की मुक़दर ..लेकिन वो टूट गया ...बह गया जो भी अन्दर था ....कांच में अपने आप को देखता हुआ सराबी बोला काश वो भी मुझे तोड़ जाता उस वक़्त तो ये जखम यूँ हिन् नहीं चुभता अन्दर हिन् अन्दर ...और वो चला गया
शर्दी से प्यार होगया है 
कसम से कभी नहीं सोचा था प्यार होगा भी तो शर्दी से ..जी हाँ वही जो नाक गला सब जाम कर देती है .....तो फिर ये तकलीफ में प्यार कैसे ...तो भयिया फिर जो सेवा होती हो प्यार करवा देती है ...वो माँ का सुबह गरम पानी देना ...हर घंटे देखना की कहीं बुखार तो न होगया मेरे बच्चे को ...वो दूध को गरम कर के हल्दी देना ...ये नहीं खाओ वो नहीं खाओ ...तो प्यार तो होगा हिन् ऐसी बीमारी से 
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