sidhanth

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Saturday, April 17, 2010

vikash

मैं युग परिवर्तन का हुंकार करने आया हूँ
पर अपनों को हीं यहाँ डरा पाया हूँ
आज भी जाती के नाम पर कटी धरा है
शोषित आज भी शोषित है
शोषण करता आज भी मुस्कुराता है
भूमि हीरों के हार के सामान गले में चमकती है
पर एक किसान से पूछो वो इसको क्या समझती है ..
मैं आया था जनमानस को जगाने
एक भिसन हुंकार करने
पर इनको सोपुं ये डोर जो खुद से हैं कटे
और खुद को बापू के पुत्र हैं कहते
है विधाता इन्सान नहीं तो फिर
क्यूँ चढ़ बैठा है तू दूसरों की जिन्दगी पर
बदलाव की आग जला वरना इस ठण्ड में तो
तू मरेगा हीं...

जय श्री राम

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